पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने संविधान की प्रस्तावना से समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द को हटाने की एक जनहित याचिका दायर की है, जिस पर आज सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई लेकिन जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दीपांकर दत्ता की खंडपीठ ने आज फिर इस मामले की सुनवाई टाल दी। कोर्ट में जैसे ही सुनवाई शुरू हुई, याचिकाकर्ता ने इसे संवैधानिक मुद्दा बताया और कहा कि मिलॉर्ड इस मामले में जो भी सवाल हैं, हमले पूछे जाएं, हम उनका जवाब देना चाहते हैं।

इस पर जस्टिस खन्ना ने भाजपा नेता से कहा, "मिस्टर स्वामी, इस पर हम छुट्टियों के बाद सुनवाई करेंगे। आज हम बहुत दबाव में हैं और बहुत व्यस्त हैं।"  दरअसल, फरवरी में पिछली सुनवाई में जस्टिस खन्ना ने पूछा था कि क्या संविधान की प्रस्तावना को 42वें संशोधन (उक्त शब्दों को शामिल करने के लिए किए गए संशोधन) से पहले भी संशोधित किया जा सकता था और उन शब्दों को अंगीकार करने की तारीख को बरकरार रखा जा सकता था? इसके बाद मामले को अप्रैल तक चाल दिया गया था।

बता दें कि सुब्रमण्यम स्वामी ने अपनी याचिका में कहा था कि आपातकाल के दौरान 1976 में 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के जरिए संविधान की प्रस्तावना में शामिल किए गए ये दो शब्द (समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष) 1973 में 13 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा प्रसिद्ध केशवानंद भारती फैसले में  संविधान की मूल संरचना सिद्धांत के बारे में की गई व्याख्या का उल्लंघन हैं। स्वामी ने अपनी याचिका में तर्क दिया है कि केशवानंद भारती मामले के तहत संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति को संविधान की मूल भावना से छेड़छाड़ करने से रोक दिया गया था।

स्वामी ने अपनी याचिका में यह भी तर्क दिया है कि प्रस्तावना में इस तरह के शब्दों को जोड़ने की प्रक्रिया अनुच्छेद 368 के तहत संसद की संशोधन शक्ति से अलग है। उन्होंने याचिका में यह भी कहा है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भी इन शब्दों को संविधान की प्रस्तावना में शामिल करने से इनकार कर दिया था क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि संविधान नागरिकों को उनकी राजनीतिक विचारधाराओं को उनसे छीने और उन पर किसी तरह की विचारधारी थोपी जाय।

राज्यसभा सांसद और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बिनॉय विश्वम स्वामी की याचिका का विरोध कर रहे हैं। उनका तर्क है कि 'धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद' संविधान की अंतर्निहित और बुनियादी विशेषताएं हैं।

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